मैं घर ढूंढ रहा हूं इन दिनों
एक ऐसा घर जहां खिडकियां हों
जो खुलती हों इत्मिनान की गली की तरफ
जिसमें दाना चुगने के भरोसे आते हों कबूतर
और कभी कभी गौरेया भी
जहां दूर से कानों में चली आती हो
किसी कोयल की गाई मीठी कविता
जहां हवा में न घुला हो ‘सुरक्षा’ का डर
एक ऐसा घर जिसमें रहने के लिए
‘दलाली’ न देनी पड़ें
इस बात की गवाही न देनी पड़े
कि ‘कौन-कौन आएगा कौन-कौन नहीं’
जहां ‘लड़की’ का आना गुनाह न समझा जाए
जहां ‘बेचुलर्स’ को भी माना जाता हो किसी की ‘फैमिली’
जहां की लीज़
मेरी शक्ल, मेरी आंख, मेरे लहज़े और मेरे कपड़ों से तय न हो
एक ऐसी ‘सोसाइटी’ में एक ऐसा घर
जहां ‘वेजिटेरियन’ और ‘नॉन वेजिटेरियन’ होने का
न देना पड़े सर्टिफिकेट
जहां मेरी ‘जाति’ न बने मेरा ‘चरित्र प्रमाणपत्र’
जहां रहने से पहले मुझसे न पूछा जाए- ‘हिन्दू’ हो या ‘मुस्लिम’
जहां तरेर कर न देखती हों पड़ोसियों की आंख
एक घर जिसका कोई ‘मकान मालिक’ न हो तो क्या कहने
अपने इस ‘सोने की चिड़िया’ की उड़ान से कभी फुरसत मिले
‘संस्कृत’ की जगह ‘प्यार’ की भाषा में सुनने का कभी मन हो
‘गीता’ के ज्ञान के इतर इतनी सी बात अगर समझ आ सके
कुरानों, नमाज़ों, बुर्कों के बाहर अगर दिखाई देती हो कोई दुनिया
तो एक छोटी सी बात सुनो
मैं भले ही ‘किरायेदार’ हूं
पर दुनिया के तमाम ‘मकान मालिको’
एक शर्त मेरी भी है
मकानों के इस तबेले में
जिसे तुम प्यार से ‘शहर’ कहते हो
उसे तो छोड़ ही दो
इस ‘महान’ देश के किसी कोने में कहीं
कोई ऐसा घर हो तो बताना
तब तक मैं बेघर ही अच्छा.