तुम कहाँ चली गईं…और अपने साथ कितना कुछ ले गईं.
वो नानी के घर जाना, दिन भर उधम मचाना, तपती धूप में शैतानियाँ, वो कॉमिक्स पढ़ना और उनकी लाइब्रेरी चलाना, फ्रीज में दूध-पानी की आइसक्रीम जमाना, वो ताश की बाज़ियाँ और सांप-सीढ़ी के दाँव, रसना पार्टियाँ, रात को वीसीआर पर फिल्म देखने का चाव, छत पर बर्फ सी ठंडी चादर पर पसर जाना, तारों की छत के नीचे, नानू से कहानी सुनते-सुनते सो जाना…
पहले तो छुट्टी पड़ते ही बस्ते से कुट्टी हो जाती थी, अब तो हॉलिडे होमवर्क, मास्टर जी के डंडे सा डराता है.
तुम खो गई हो, पर फ़िर तुम कहोगी कि बच्चों का बचपन भी तो खो गया है. बेफ़िक्री, मासूमियत, मस्ती छोड़कर क्लासेस और कॉम्पिटिशन्स का हो गया है, उम्र से पहले ही बड़ा हो गया है.
उसे लौटा लाओ तो मैं भी लौट आऊँगी… तुम्हारी तरह उनका बचपन भी, नानी के अचार-मुरब्बों जैसा खट्टा-मीठा बनाऊँगी.
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