Tuesday, 20 February 2018

है अजीब शहर की ज़िंदगी न सफ़र रहा न क़याम है

है अजीब शहर की ज़िंदगी सफ़र रहा क़याम है
कहीं कारोबार सी दोपहर कहीं बद-मिज़ाज सी शाम है
यूँही रोज़ मिलने की आरज़ू बड़ी रख-रखाव की गुफ़्तुगू
ये शराफ़तें नहीं बे-ग़रज़ इसे आप से कोई काम है
कहाँ अब दुआओं की बरकतें वो नसीहतें वो हिदायतें
ये मुतालबों का ख़ुलूस है ये ज़रूरतों का सलाम है
वो दिलों में आग लगाएगा मैं दिलों की आग बुझाऊंगा
उसे अपने काम से काम है मुझे अपने काम से काम है
उदास हो मलाल कर किसी बात का ख़याल कर
कई साल बा'द मिले हैं हम तिरे नाम आज की शाम है
कोई नग़्मा धूप के गाँव सा कोई नग़्मा शाम की छाँव सा
ज़रा इन परिंदों से पूछना ये कलाम किस का कलाम है

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