Wednesday, 10 October 2018

हाउ टू लिसेन

जिस प्रकार मैं अपने पेट को निकलते हुए देख पा रहा हूँ उसी प्रकार मैं ये भी देख पा रहा हूँ कि दिन प्रतिदिन बोलने वालों की संख्या बढती जा रही है और सुननेवालों की कम | हर किसी को यही लगने लगा है कि अगर माइक मिल जाए तो मोदी से भी अच्छा भाषण हम देंगे | बड़े बुजुर्गों को तो ये भी लगता है कि अगर सही टाइम पर माइक उन्हें मिला होता तो आज देश के प्रधानमंत्री वो होते | इसीलिए लोग माइक के मिलने पर ऐसे चिपक जाते हैं कि जैसे पूरी सभा उन्हीं के लिए बैठायी गयी है | समझ नहीं आता कि वे भावनाओं में बह जाते हैं या अपनी लहर बनाना चाहते हैं |
आजकल ‘हाउ टू स्पीक’ की बहुत सारी कक्षायें चलाई जाती हैं, जबकि उससे ज्यादा जरूरत है कि ‘हाउ टू लिसेन’ की कक्षायें चलाई जाये | बड़े बड़े मास्टर क्लास होते हैं या ‘टॉक’ होते हैं बीच-बीच लोगो के पास माइक पहुँचते ही वो सेलेब्रिटी बन जाते हैं | माइक पंहुचते क्या, ऐसा लगता है जैसे वो माइक का ही इंतज़ार करते रहते हैं | कितना अच्छा बोलें इस चक्कर में शुरू से क्लास में ध्यान नहीं लगा पाते और बोलने के बाद पूरी क्लास ये सोचने में बिता देते हैं कि कितना अच्छा बोला मैं | कभी-कभी तो अच्छा बोलने के साथ साथ ये भी जता देना चाहते हैं कि सामना बैठा स्पीकर असल मायने में उनसे कम जानता है, ‘मैं दर्शक दीर्घा में हूँ तो क्या हुआ, आपसे कम नहीं हूँ’ |
मैं उन्हें क्या राय दे सकता हूँ बस यही कामना करता हूँ कि प्रकृति मेरे ऊपर सुनने की शक्ति बनाये रखे |

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