Wednesday, 23 January 2019

मैं कुतुब मीनार हूं

महरोली टर्मिनल से वो टूटी फूटी सड़क
जाती है क़ुतुब मीनार की ओर
ऐसे जैसे कोई गांव का बच्चा
धूल-धूसरित कपड़े पहने जा रहा हो दिल्ली देखने
अपने हाथ में पकड़े इतिहास की कोई फटी पुरानी किताब
दूर आकाश में बहुत ऊंचाई से
क़ुतुब मीनार देखती है उस उपेक्षित सड़क को
जैसे नौकरी के लिए कहीं दूर रह रही मां
अपनी आंखों में बना रही हो अपने बच्चे का काल्पनिक चित्र
बिखरे हुए हैं चारों तरफ चुनावी पर्चे
और पर्चों में झूट की तरह  चिपके हैं विकास के वादे
हवा में गूँज रही चुनावी घोषणाओं में धूल लिपटी हुई है
जो सांसों को कर रही है और ज्यादा भारी
और इस धूल, उपेक्षा, टूटन, अव्यवस्था के बीच
लोग जी रहे हैं अपने ही समय को
जैसे देख रहे हों इतिहास को
जिसे बदला नहीं जा सकता
बस देखा जा सकता है बेबसी के साथ
और दूर आकाश में सदियों से टिकी है क़ुतुब मीनार
सोचती हुई कि काश उसके पास भी पंख होते
और ये सब देखने से पहले
वो उड़ सकती इस सबसे कहीं दूर
उस कबूतर के साथ जो अभी अभी उसके गुम्बद  पर बैठा हुआ था

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