Friday, 14 June 2013

कहने का मन करता है...

दिल की गिरह खोल दो,
चुप न बैठो कोई गीत गाओ
महफिल में अब कौन है अजनबी
तुम मेरे पास आओ....
मिलने दो अब दिल से दिल को
मिटने दो मजबूरियों को
शीशे में अपने डूबो दो
सब फ़ासलों दूरियों को
जब भी यह गाना सुनता हूँ थिरकने लगता हूँ । हिन्दी सिनेमा के गाने मेरी धमनियों में दौड़ते हैं। यही मेरी अहसासों की दुनिया हैं । दूसरे की रची हुई मगर मेरे लिए । इस गाने की संयमित रफ़्तार एक ऐसी दुनिया में ले
जाती है जहाँ शाम की हल्की सी हवा छू छू कर गुज़र रही है, हमारे क़दम किसी के साथ आगे
पीछे हो रहे हैं । दोनों एक दूसरे को ऐसे थामे हैं कि थिरकना लाज़िमी हो जाए । रौशनी उकसा रही है कि कह दो ।
मन की गाँठें खुलने लगे चुपचाप । कोई बुला ले अपने पास । बिठा ले और कहने के लिए सारा वक्त क़दमों में बिछा दे । क्या गाना है । अभी बजाइये । ग़ज़ब का गीत है यह । रवानगी ऐसी कि भागते दिल को कोई थाम न सके । मेरे मोबाइल में यह गाना हमेशा रहा । हम जैसे न कह पानों के लिए उकसाने वाला गीत । कहने का ऐसा बेतकल्लुफ़ माहौल यह गाना रचता है कि पूछिये मत । ग़ौर कीजिये इस पंक्ति पर ...

हम राह पूछे किसी से
न तुम अपनी मंज़िल बताओ
कल हमसे पूछेगा कोई
क्या हो गया था तुम्हें कल
कहाँ से आए हो और जाना कहा है ।
बस कहते रहो ।
तभी इस गाने के बाद एक और बजने
लगता है ।
आगे भी जाने न तू
पीछे भी जाने न तू
जो भी है
बस यही एक पल है
दोनों गानों को इसी क्रम में सुनियेगा ।

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