Monday, 17 June 2013

पागलनामा- पार्ट वन

थकान गले तक भरी हुई है । दिमाग़ पाँव तक
सुन्न है । सुबह सुबह रात की बची ख़बरें
झनझना रही हैं । ऐसी तमाम ख़बरों के साथ
दिन बदल जाते हैं । हम उन्हें युद्ध में बदल कर
मोर्चे पर डटे सिपाही का भरम पाल लेते हैं ।
कुछ दर्शक कुछ पाठक भी रण में उतरे होते हैं
। तलवारें भांज रहे होते हैं ।
बाक़ी बची ख़बरों से चुपचाप रक्त रीसता है ।
इस माहौल में कौन रोता है किसका लहू
देखकर, कौन भीगता है किसी के आँसू देखकर
। हम सबको पता है कि हम सब ऐसे ही हैं । हम
सब ऐसे ही रहेंगे । चुप रहना है बस । खुद से
भी चुप्पी साध लेनी है ।
जो पकड़ा जाएगा मारा जाएगा । उसके लिए
बाक़ी लोग लिख कर या बोलकर क्या बदल
लेंगे । फिर भी बोला तो जायेगा ।
लिखा तो जायेगा । कुछ बदल भी जाये
तो इसी नाम पर सब चलता चला जाएगा ।
आप ख़ुद को जितना ख़ाली करते हैं
उतना ही भरने लगते हैं । ख़ाली जगह में
हवा घुसकर साय सायं करती है । शोर है ।
भीतर ,बाहर । आप जो नहीं है वो भी हैं कई
लोगों की नज़र में । जो हैं वो भी नहीं हैं
कइयों की नज़र में । आप कहीं है ही नहीं । ख़ुद
में न दूसरों की नज़र में । राजनीति कीजिये ।
बस कहिये कि राजनीति नहीं करते ।
अपना साक्षी ख़ुद बन जाइये ।
तब भी कुछ नहीं होगा । कुछ नहीं बदलेगा ।
भाषा के उसी भवंर में हम आप उतराते रहेंगे ।
वाक्य विन्यासों के हाइवे पर स्कूटी दौड़ाते
रहेंगे । चेतना जड़ समाज में
लिखना चेतनाशील नहीं है । दावा मत कीजिये
। दूसरे को दे दीजिये । गुट ज़रूरी है । गुटका भी ।
कांग्रेस ज़रूरी है । बीजेपी भी । नेता ज़रूरी हैं ।
कार्यकर्ता भी । विचारधारा ज़रूरी है ।
अवसरवाद भी । पीछे से मार करने
की रणनीति बनाते रहिए । सामने से मुस्कुराते
रहिये । सामने वाले को गिरते देखिये । गिराने
वाले के साथ हो जाइये । दलीलें तैयार रखिये ।
यही हथियार हैं । शातिर और दलाल यूँ
ही नहीं श्रेष्ठ दलील रखते हैं । उनका दर्शन
त्वरित और मारक है । कुछ भी नया नहीं है ।
जो नया नहीं है वो भी आपका है । पहली बार है
। ऐसा दावा करते रहिए । बातें परती ज़मीन हैं ।
हर दौर में उन पर कब्ज़ा होता रहेगा । तनाव से
गुज़रते हुए पागल हो जाइये । मेरी तरह अल्ल-
बल्ल लिखते जाइये जैसा कि मैं
अभी अभी कर चुका हूँ । मैं अभी पागल
नहीं हुआ हूं । ईंट पत्थर की बदबू से भरा यह
शहर जल्दी पागल कर देगा । शातिर शांत है ।
वो लिखता नहीं है । मारे गए लोग लहू
को स्याही समझ लिख देते हैं । पागल होने के
इस दौर में पैराग्राफ़ मत बदलिये । एक
ही साँस और एक ही रौं में कह जाइये । कुछ
नहीं होगा । जो पाया है गँवा दीजिये । सिर्फ
बातें बचती हैं । जिन्हें छोड़ दिया जाता है
आपके पीछे । ताकि आप भागते रहें और सुनते
रहें । दीवारों पर, पोस्टरों पर, टीवी में,
अख़बारों में । हर तरफ़ बातें हैं । सत्य
अंडरवियर पहनकर समंदर के किनारे 'हाफ़
ट्रूथ' बना सूर्य स्नान कर रहा है । झूठ शहर
का मेयर बन गया है । बारिश से कौन भीग
रहा है । वो जो घर से निकला ही नहीं । आनंद
रेडिमेड है । नूडल है । शर्म आँखों में नहीं जुराब
में होती है । जूते तो उतारो । मिल जाओ हर
धारा से । मिले रहो । इससे उससे । सबसे ।
सुनो । चुपचाप । साँसों को आहट की तरह ।
कहो चुपचाप कानों में साज़िश की तरह ।
बिजली चली जाएगी । नींद भी चली जाएगी ।
जागते हुए पागल होना अच्छा नहीं है ।
क्या इस शहर में नींद किराये पर मिलती है ?

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