Monday, 17 June 2013

पागलपन - पार्ट टू

पानी शहर में डूब चुका था । नदियाँ शहरों में
डूब गई थीं । पहाड़ शहर में खप गए थे । जिन्हें
हमने डूबा हुआ मान लिया था अब यही सब
हमें डूबा रहे हैं । बारिश बावरी हो गई है । जाने
दो ये महीना हम फिर बनायेंगे । करेंगे विकास
उन्हीं रास्तों पर जहाँ नदियाँ बहा करती थीं ।
सीमेंट से भर देंगे । जो विरोध करेगा वो पागल
कहलाएगा । भरो भरो शहरों को रेत के बारूद से
भर दो । नाली पानी के निकलने का रास्ता मत
बनाओ । फ़्लाइओवर बनाओ । पैराग्राफ़ मत
बदलो । बड़बड़ाते जाओ । इमारतें ढह रही हैं ।
जिस शिव की जटा से गंगा निकली उसी शिव
की मूर्ति से गंगा दहाड़ मार मार कर
टकरा रही है । महाविलाप का प्रलय है । कुछ
का मर जाना तय है । गंगा ख़तरे के निशान से
ऊपर है । हम नदियों से दूर जा चुके हैं ।
नदियाँ हमारी गर्दन पकड़ रही हैं । बचाओ
बचाओ । ऐ विकास अलकनंदा सो बचाओ रे ।
ऐ विकास भागीरथी से बचाओ रे । मार
देंगी दोनों । गंगा सबको नंगा कर देगी ।
मानसून का मातम सुन । सब गिरेगा सब
बहेगा । कोई अफ़सोस मत करो । इंजीनियर ने
पढ़ा ही होगा । नेता ने देखा ही होगा । पहाड़ों के
रास्ते पहली बाढ़ नहीं है । हरहर हाहाकार ।

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