Wednesday, 19 June 2013

पागलनामा- पार्ट थ्री

कुछ दिल ने कहा
कुछ भी नहीं
ऐसी भी बातें होती हैं
लेता है दिल अंगड़ाइयां
इस दिल को समझाये कोई
रात ऐसी ही होती है । विविध भारती के
जैसी । धीरे धीरे आवाज़ साफ होती सी ।
सिरहाने के क़रीब रखा रेडियो चुपचाप गाये
जा रहा है । तारों से भरा रात का आसमान
थिरक रहा है । जो भी है बस यही इक पल है ।
पाँव बिस्तर के बाहर झूल रहे हैं । इन
गानों की सोहबत में रात दोस्त की तरह बात
करती है । सारे राज़ के वेवलेंथ पकड़ लेती है ।
हौले हौले बातों से अच्छा करती जाती है ।
टेबल फ़ैन की हल्की हवा का शोर गुम हुआ
जाता है । रेडियो है कि गाता है ।
"अनजाने सायों का राहों में डेरा है
अनदेखी बाहों ने हम सबको घेरा है ।
जीने वाले सोच ले यही वक्त है
कर ले पूरी आरज़ू "
वायलीन जैसा कुछ बज रहा है । माउथ
आर्गन है क्या । मालूम नहीं । कौन है उस
तरफ़ जानता नहीं । गानों में कौन है
जो किसी से मिलता जुलता है । जीवन में कौन
है जो गानों सा लगता है । मैं हूँ तो भी नहीं हूँ ।
पैराग्राफ़ बदलना गुनाह लगता है ।
लिखना बादल के फटने जैसा है । सब कुछ बह
जाता है । जो होता है वो भी और
जो नहीं होता है वो भी । लिखी हुई बातों से मन
दूर निकल आता है । पागलनामा क्यों लिख
रहा हूँ । क्यों जाग रहा हूँ । नींद किस शहर से
आती है । वो ग़ाज़ियाबाद नहीं आती क्या ।
पतंग की कटी डोर पकड़ने सा मंज़र है ।
बचपन में डोर के पीछे दूर तक भागना नींद के
पीछे दौड़ना जैसा है । क्या है जो सोने
नहीं देता । क्या है जो जागने से मिल
जाएगा । क़ानून बनाओ । क़ानून बनाओ । हर
ख़्वाब को जुर्म में बदल दो । सलाखों के पीछे
मिलेंगे सपने और जेलर बना जाग
रहा होऊँगा मैं ।कोई
परेशानी तो है नहीं फिर परेशान कैसा ।
केदारनाथ सिंह को पढ़ूँ क्या, लेकिन
काशीनाथ सिंह से शांति नहीं मिली । मंगलेश
की कविता ठीक रहेगी । नहीं न्यूज़ चैनल देख
लूँ । नहीं नहीं । नहीं देखनी । मैं तो पागल हूँ ।
न्यूज़ तो समझदार देखते हैं । पागल
तो जागता है । नींद नहीं आती । अरे अरे फिर
कोई गाना आ गया ।
दुनिया में लोगों को
धोखा कभी हो जाता है
आँखो ही आँखों में
यारों का दिल खो जाता है ।
विजेता कहीं भी सो लेता है । करवट
नहीं बदलता है । ग़ाज़ियाबाद हारे हुए
लोगों का शहर है । हिन्दी कविता पढ़ने
वालों की दुनिया । जो अपना पैसा देकर
संग्रह छपवाते हैं कवि कहलाने के लिए । तुम
सोते हो कि नहीं ।

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