Friday, 21 June 2013

पागलनामा- पार्ट फ़ोर

फ़ेसबुक पर न्यूज़ चैनलों की रिपोर्टिंग को लेकर प्रतिक्रियाएँ पढ़ रहा हूँ । अब इतना कम टीवी देखता हूँ कि पढ़ते हुए लगा कि लोग क्यों देख रहे हैं । ये बातें कहीं दस साल पहले तो नहीं पढ़ीं । जब चैनल उनकी अपेक्षाओं पर खरे ही नहीं उतर रहे, उल्टा उनके भीतर चिढ़ पैदा कर रहे हैं तो उन्हें बंद कर मेरी तरह अख़बार का इंतज़ार करना चाहिए । अख़बार में भी कोई स्वर्ण युग नहीं है । फिर भी हर घटना में चैनलों का आपको बेवकूफ बनाना, आपका चैनलों के संग बेवकूफ बनना 'लव हेट ' रिलेशनशिप बन गया है । चैनल ऐसे ही रहेंगे । जो अपवाद हैं वो इस गंध में इधर उधर से निकल कर आते रहेंगे । एकाध छक्का तो हरभजन भी मार देता है । हम पहले पहुँचे, हमारी तस्वीर पहली है, हमने ही पहले बताया था । एक अंग्रेज़ी का रिपोर्टर यह बोल रहा था कि उसके सूत्रों ने बताया है कि आने वाले पलों में बारिश होगी । मुझे तो लगा कि इंद्र के दरबार में भी सूत्र है । सही है कि हमारी भाषा संरचना में चमत्कार और दैवी कृपा ऐसे ठूँसे पड़े हैं कि उन्हें जब सामान्य दिनों में निकाल नहीं पाते तो केदारनाथ को देखकर कैसे निकालेंगे । क्या पता कि अख़बार वाला भी इसी भाषा में लिख रहा हो । कितने रिपोर्टर गाँव गाँव भटक रहे हैं । टीवी के रिपोर्टर का पहुँचना ही घटना है । दिखाने की सुविधा होने के कारण वो खुद को घटना बनाता है ताकि पहले से घट चुकी घटना की भयावह़ता का वो हिस्सा बनकर नायक हो जाए । इसका कुछ नहीं किया जा सकता । केदारनाथ के ढहने पर चैनलों का टी सीरीज़ में बदल जाना मुझे हैरान नहीं करता । टीका अँगूठी ताबीज़ पहने ये रिपोर्टर ऐसी भाषा में नहीं बोलेंगे तो कौन बोलेगा । क्या ये केदारनाथ की वेदपाठी की परंपरा के विस्तार नहीं है? बिल्कुल ये रिपोर्टर उम्मीदों पर खरे उतरे हैं ।  जो भी टीवी में काम करने आ रहा है वो इसी तरह की भाषा और शैली का अनुसरण करे । आलोचक आपके संपादक नहीं हैं । गंध में गंध की तरह रहो । कीचड़ में कमल खिल जाने से कीचड़ की नियति नहीं बदलती । कमल व्यक्तिगत है । उस पर भी तोहमत है कि कीचड़ में ही खिला है । खुलकर गंध कीजिये । इससे नवोदित पत्रकार शुरू से ही सिस्टम के अनुकूल रहेंगे और कैरियर कम तनाव में गुज़रेगा । ज़्यादा पत्रकारिता के मानक सीखने में समय न लगायें । एडजस्ट कीजिये । जिसको देखने में तकलीफ़ हो रही है उसकी चिंता मत कीजिये । वो खाली बैठा है टीवी के सामने । दस साल के अनुभव से बता रहा हूँ । एक आलोचना का असर होते नहीं देखा है । जब आपके बड़े भी यही मिसाल छोड़ गए हैं तो खुलकर बिना किसी नैतिक संकट के करो । बल्कि केदारनाथ से हिन्दू संकट का एलान कर दो । दहाड़ मार कर रोना शुरू कर दो कि शिव का मंदिर बच गया है । इस ज्योतिर्लिंग में शक्ति है । आइये फिर से नई आस्था के साथ माँगने चढ़ाने आ जाइये । तमाशा है टीवी तो तमाशबीन है दर्शक । खुद घर में कंठी पहनकर बैठा होगा और आपसे कहेगा कि आप मंदिर के चमत्कार में न बहो । अपनी सेटिंग संपादक और शंकर से रखो । दर्शक क्या होता है । इससे पहले की कौन सी ऐसी घटना थी जिसमें टीवी ने ऐसी हरकत नहीं की थी । वो ऐसे ही करेगा । इसीलिए इतनी बड़ी घटना होने के बाद भी मैं बीस मिनट भी टीवी नहीं देखा । हल्का फुल्का देखकर उसके बाद एम टीवी । अब अगर ये पता नहीं है कि नौटंकी होगी तो इसका मतलब लोगों को टीवी देखना नहीं आता । साल भर तमाशा देखो और एक दिन चाहो कि संवेदना और ज़िम्मेदारी से भरपूर वाला हो जाए तो हद ही है न । कई बार लगता है कि लोग फ़ेसबुक पर स्टेटस लिखने के लिए पाँच मिनट चैनल देखते हैं । पता चलता है कि ये भी गंध ढूंढ रहे हैं लिखने के लिए । अपना कान खुजाकर सूंघने वाले हैं ये । हालाँकि बातें इन्हीं की ठीक लगती हैं पर जिन बातों का कोई असर न हो उनका रास्ता छोड़ देना चाहिए । गटरकाल है पत्रकारिता का । गटर की गंध का अपमान मत करो । आपदा आई है । टीवी का प्रदर्शित दुख अपने आप में एक आपदा है । सब रिपोर्टर ऐसे बोल रहे हैं जैसे यही शुभचिंतक ठहरे । सर पीटो, माथा फोड़ लो बात एक ही है । कुछ सही में जवाबदेही से बोलते होंगे । पर क्या करना है । क़समें वादे प्यार वफ़ा सब बातें हैं बातों का क्या । रेटिंग आ जाएगी सब धुल जायेगा । अगले हफ्ते प्रोमो चलेगा कि इस घटना के कवरेज ने सबसे ज्यादा हम पर भरोसा किया । अभी एक महीना और एक साल की बरसी बाकी है । चैनल बदल कर करोगे क्या । हर तरफ अब यही अफसाने हैं । हम तो तेरी आंखों के दीवाने हैं । लाइफ़ और लेखन में पैराग्राफ़ मत बदलो । 

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