बोर्ड एग्जाम्स, ये वो दौर होता है जब आपके दूर-दराज के रिश्तेदारों और पड़ोसियों को भी आपके भविष्य की चिंता सताने लगती है। जब सब बड़े, जो अपनी-अपनी बोर्ड की मार्कशीट किसी कोने में पटक कर भूल चुके होते हैं, आपको ये विश्वास दिलाने पर आतुर रहते हैं कि आपके बारहवीं के नंबर ही आपके जीवन का सारा लेखा-जोखा तय करेंगे। ये नंबर ही डिसाइड करेंगे कि आपको कौनसा कॉलेज मिलेगा, कैसी कंपनी में आपको नौकरी मिलेगी, कैसे लड़के या लड़की से आपकी शादी होगी, आप मारुती 800 खरीदोगे या ऑडी, 1 BHK खरीदोगे या विल्ला, यहाँ तक कि आपके स्वर्ग और नर्क में जाने के चांसेस का फैसला भी ये बोर्ड की परसेंटेज ही करेगी।
और फिर आता है वो भयंकर दिन जिसके 2-4 दिन पहले से ही आप मंदिर-मस्जिद के चक्कर लगाना शुरू कर देते हो। भगवान को आरतियों की जगह अपने बोर्ड के रोल नंबर याद कराना शुरू कर देते हो। जब आपको अहसास होता है कि प्यार और इश्क तो बेकार ही बदनाम हैं, रातो की नींद तो रिज़ल्ट के पहले उड़ती है।
जब आप कांपते हाथों से अपना रोल नंबर डालते हो और किसी थ्रिलर मूवी के सस्पेंस की तरह आपका रिज़ल्ट आपकी उत्सुकता और डर को बढ़ा ही रहा होता है कि तभी सर्वर जाम हो जाता है और आप चाह कर भी मुँह से गाली नहीं निकाल पाते क्योंकि कंप्यूटर स्क्रीन पर टकटकी लगाए, दो जोड़ी नज़रें और होती हैं जो लगातार आपके दिमाग के प्रेशर को बढ़ा रही होती हैं, आपके मम्मी और पापा की।ये ऊपर-ऊपर से तो आपको ढांढस बंधा रहे होते हैं पर आपको पता होता है कि उनके लिये ये 2 डिजिट की परसेंटेज उससे कहीं ज़्यादा है। अरे! सारे पड़ोसी, सारे रिश्तेदार उनसे अगले 15 दिन तक यही सवाल तो करेंगे कि, "अरे! अग्रवाल साहब। इस बार बिट्टू बारहवीं में था ना? कितना पर्सेंट बना?" अब आपके मम्मी-पापा, उत्तर देते वक्त सीना चौड़ा करके आपकी परसेंटेज के साथ हर एक सब्जेक्ट में आपके मार्क्स बताते हैं या नज़रें झुकाकर कुछ फुसफुसाते हैं और फ़ौरन टॉपिक बदल देते हैं, इसका निर्णय करती है, आपकी बाहरवीं की परसेंटेज।
आज मेरे लिए भी वही सस्पेंस वाला दिन था। ज़ाहिर है, रात भर सोया नहीं था और सुबह होते ही, कम्प्यूटर के आगे बैठ कर www.cbse.nic.in को बार-बार रिफ्रेश किये जा रहा था। सुबह के नौ बजे थे और मम्मी ने अपना पूजा-पाठ का कार्यक्रम शुरू कर दिया था। पापा भी हर 5 मिनट में मेरे कमरे में आ-आ कर पूछते, "आया क्या?" और मैं हर बार ना में सिर हिला देता। रिज़ल्ट की बाट देखते-देखते एक घंटा बीत चुका था और वो मानो मई के महीने की बारिश की तरह नखरे दिखा रहा था, आने का नाम ही नहीं ले रहा था।
मैं अभी चेयर से उठा ही था कि मेरे फोन की घंटी बजी, इतनी टेंशन में ये भी नहीं याद कि फोन किसका था बस ये याद है कि सामने से आवाज़ आई थी,"भाई रिजल्ट आ गया!" इसके बाद मैंने ना आव देखा ना ताव, बस कंप्यूटर पर लपक पड़ा। साईट पहले से खुली थी। लिंक पर क्लिक किया और कांपते हाथो से रोल नंबर डाला। एंटर पर क्लिक करते ही दिल ज़ोरों से धड़कने लगा और माथे पर पसीने की बूंदे उभरने लगीं। वो दो-तीन सेकंड का समय सदियों की तरह गुज़रा और स्क्रीन पर मेरी मार्कशीट आ गई। मैंने सबसे पहले मार्कशीट के सबसे निचले भाग पर नज़र डाली, "ग्रैंड टोटल-356/500"। माना मैथ्स में बस 66 नंबर थे, फिर भी मैंने कुछ पलों में ही अपनी परसेंटेज निकाल ली- मात्र 71.2 प्रतिशत। नंबर सामने थे पर दिमाग उनपर विश्वास करने को तैयार ही नहीं था। ऐसा लग रहा था कि किसी ने ज़ोरों से सर पर डंडा मारा हो। नंबर दोबारा जोड़े, साईट रिफ्रेश करी पर कोई फ़र्क नहीं पड़ा, नंबर ज्यों के त्यों थे, बस 71.2 प्रतिशत।
मुझे पता भी नहीं चला कि पापा मेरे पीछे खड़े ये सब देख रहे थे, मैंने पीछे मुड़ के देखा तो उनकी आँखों में सहानुभूति थी। वो कुछ नहीं बोले, बस हलके से मेरे कंधे पर हाथ रखके थपथपा दिया। नहीं, ये वो शाबाशी वाली थपकी नहीं थी, ये तो वो, "कोई नहीं बेटा, बैटर लक नेक्स्ट टाइम" वाली थपकी थी। मैं पापा से नज़रें नहीं मिला पा रहा था, ऐसा लग रहा था कि कोई बहुत बड़ी गलती कर दी हो। बचपन में, पापा के पर्स से पचास रूपए चुराने से भी बड़ी गलती।
मैं होश संभाल कर पापा से कुछ भी बोल पाता, इससे पहले ही घर में शर्मा अंकल की आवाज़ गूंजने लगी, "अरे अग्रवाल साहब! भाभीजी! बधाई हो भई"। हाँ जी, वही शर्मा जी, जो आपके, मेरे और हम सबके मोहल्ले में होते हैं। वही शर्मा जी जो, आपको और हमें ये जताने पर तुले रहते हैं कि कैसे उनके फ्रिज की 5 स्टार रेटिंग है और आपके फ्रिज की 4 स्टार, कैसे उनकी गाड़ी, आपकी गाड़ी से ज़्यादा बड़ी है, कैसे उनकी वैकेशन, आपकी छुट्टियों से ज़्यादा मज़ेदार थी, कैसे उनकी सैलेरी में आपकी सैलेरी से ज़्यादा ज़ीरो हैं और भी पता नहीं क्या-क्या! और आज शर्मा अंकल, हाथो में मिठाई का डिब्बा लिए, ये जताने आए थे कि कैसे उनके बच्चे की परसेंटेज मेरी परसेंटेज से बहुत ज़्यादा है। उनका बेटा चंदू मेरी ही क्लास में पढता था। चंदू का असली नाम तो कम ही लोग जानते थे, क्लास में तो उसे सब, "Mr. रट्टू" कहकर बुलाते थे। उसकी रटने की शक्ति इतनी थी कि उसने R.D Sharma का एक-एक न्यूमेरिकल तक रट डाला था, पर दीन-दुनिया के बारे में कुछ पूछ लो तो भाई साहब को दिन में तारे दिख जाते थे। अब देखना ये था कि "Mr. रट्टू", अपनी रटने की क्षमता का पूर्ण इस्तेमाल करके कितने प्रतिशत लाया था? और इस राज़ से भी शर्मा अंकल ने पलक झपकते ही पर्दा उठा दिया।
बेटे की पीठ को ज़ोर से थपथपाते हुए बोले, "पूरे 92 परसेंट लाया है ये।" ख़ुशी से उनका चेहरा इतना चमक रहा था कि फेयर एंड लवली की चमक भी फेल थी। फिर दूसरे ही पल अपनी बत्तीसी दिखाते हुए उन्होंने वो सवाल पूछ ही लिया जो सीधा मेरे दिल को चीरता हुआ निकल गया, "बिट्टू की परसेंटेज क्या बनी?"
मन तो किया कि बोल दूँ कि, "अंकल आप अपने रट्टू बेटे के 92 परसेन्ट की ख़ुशी मनाओ ना। यहाँ ज़ख्मों पे गर्म मसाला छिड़कने क्यों आ गए हो?"
मुझे अपने कम नंबरों से ज़्यादा इस बात का दुःख था कि एक बार फिर, शर्मा अंकल पापा को नीचा दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ेंगे। किस बेटे को पसंद होता है कि उसके कारण उसके पापा का सर शर्म से झुके। मुझे लगा कि अभी पापा सिर झुकाककर मेरी परसेंटेज बताएंगे और हमेशा की तरह टॉपिक बदलने की कोशिश करेंगे। पर आज पापा किसी और ही मूड में थे। शर्मा अंकल की आँखों में आँखे डाल कर, उनपर तंज कसते हुए पापा बोले, "शर्मा साहब, आपके बेटे से तो थोड़ी कम ही है पर फिर भी अच्छी परसेंटेज है बिट्टू की। 71 परसेंट आए हैं इसके।"
ये सुनकर शर्मा अंकल का तो जैसे रोम-रोम खिल गया। पापा को ज़लील करने के लिए जो स्क्रिप्ट वो घर से रट कर आए थे, उसको दोहराने का समय आ गया था। अपनी मुस्कुराहट को छुपाकर, नकली सी, रुआँसी सूरत बनाकर वो बोले, "अग्रवाल जी, सच बताऊँ मेरा तो दिल ही बैठ गया। अपने चंदू के अच्छे नम्बरों की ख़ुशी से ज़्यादा मुझे बिट्टू के ख़राब नम्बरों का दुःख है, अब बेचारे को अच्छे कॉलेज में एडमिशन भी नहीं मिलेगा। पर देखो आप परेशान मत होना, बिट्टू मेरे भी बेटे जैसा ही है। एक कॉलेज के ट्रस्टी से मेरी जान-पहचान है, थोड़ा-बहुत ले-दे के इसका एडमिशन हो ही जाएगा। मैं कल ही बात करता हूँ उनसे।"
उन्हें लगा कि पापा उनको धन्यवाद देंगे और उनके चरणों में गिर जाएंगे कि मेरे नाकारा बेटे की भलाई के लिए आप कितना कुछ कर रहे हैं। पर अफ़सोस, ऐसा कुछ नहीं हुआ। पापा फिर से व्यंग कसते हुए बोले, " अरे, अरे शर्मा जी, आप क्यों इतना दुखी हो रहे हैं? मुझे तो अपने बेटे के नम्बरों पर कोई दुःख नहीं है। ये दो डिजिट की परसेंटेज मेरे बेटे की पूरी ज़िन्दगी का फैसला करेगी क्या? और रही बात एडमिशन की, तो आप अपने ट्रस्टी को अपने पास ही रखिये, शायद चंदू के एडमिशन में काम आ जाए। जहां भी होगा, इसका एडमिशन इसकी मेहनत के बल पर ही होगा। और एग्जाम के नंबरों का क्या है, आज पास तो कल फेल। पर इंसान को ज़िन्दगी में कभी फेल नहीं होना चाहिए और मुझे अपनी परवरिश और शिक्षा पर पूरा भरोसा है। मेरा बेटा ज़िन्दगी के इम्तेहान में कभी फेल नहीं होगा।"
फिर चुटकी लेते हुए पापा बोले, "चंदू बेटा, ज़िन्दगी वाले एग्जाम के लिए तुमने सारे फॉर्मूले रट लिए हैं ना?" इस बात पर तो मैं भी अपनी हंसी नहीं रोक पाया। अब शर्मा अंकल झेंप गए थे, कहाँ आसमान के सपने सजा कर आए थे और यहाँ तो औंधे मुँह पटखनी मिली थी।
खीज कर शर्मा अंकल बोले," अरे भई अग्रवाल! तुम्हारे कुछ सपने-वपने हैं की नहीं! 71 परसेंट के साथ ये तुम्हारे सपने कैसे पूरे करेगा?''
पापा हंस कर बोले, "अग्रवाल साहब मेरे कौनसे सपने? मेरे जो भी सपने थे वो मैं धीरे-धीरे पूरे कर ही रहा हूँ। इसके अपने सपने हैं ये उन्हें पूरे करेगा। अब अपने सपनो का बोझ मैं इसके कंधो पर क्यों डालूँ भला?"
अब शर्मा अंकल की हालत देखने वाली थी, पापा ने उन्हें स्पीचलेस कर दिया था। चेहरा गुस्से से लाल-पीला हो गया था और उन्हें अहसास हो गया की भैया, मैदान छोड़कर भागने में ही भलाई है। वो हड़बड़ाते हुए उठे और बोले, "हाहा। ठीक कह रहे हैं भाई साहब। अच्छा और भी जगह मिठाई बांटनी है, चलते हैं," और शताब्दी की स्पीड से वो निकल लिए।
आज पापा की बातें सुनकर मेरे मन में उनके लिए इज़्ज़त और बढ़ गई थी। ऐसा नहीं था कि पापा ने मुझे कभी चंदू से कंपेयर नहीं किया था या कभी कम नम्बरों के लिए मुझे डाँटा नहीं था। पर आज जो पापा ने शर्मा अंकल से कहा वो बातें मेरे दिल को छू गईं। हर बार मम्मी-पापा बच्चों को बड़ा होते देख कर खुश होते हैं, पर आज पहली बार ऐसा लगा कि मेरे पापा बड़े हो गए हैं। मेरी आँखे नम थीं और मैंने बिना कुछ बोले पापा को गले लगा लिया और उनसे वादा किया की मैं आगे की पढ़ाई में जी-जान लगा दूंगा और उनका नाम रोशन करूँगा।
पापा मेरे आँसू पोंछते हुए बोले, "अरे पगले, अभी शर्मा को इतना बड़ा लेक्चर दिया, फिर भी नहीं समझा। बेटे ज़िन्दगी में कोई भी काम हमारी ख़ुशी के लिए मत करो, वो काम करो जिसमें तुम्हें ख़ुशी मिलती है और देखना, उस काम में सफलता तुम्हारे कदम चूमेगी।" मैं मुस्कुरा दिया।
सच में, कितने बड़े हो गए थे मेरे पापा।
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