तुम्हें तो आज़ादी पसंद थी, फिर क्यों कैद हो मेरी कहानियों में, किस्सों में, यादों में, बातों में?
याद है मुझे जब तुम अपने लम्बी, घनी ज़ुल्फ़ों को खुला छोड़ दिया करती थीं तो अक्सर मैं पुछा करता था कि इन्हें बाँध कर क्यूँ नहीं रखती हो। खुली जुल्फ़ हवा के झोंके की वजह से कहीं उलझ ना जाए। तो तुम कहती, "मुझे बँधना पसंद नहीं।" मैं तो उड़ना चाहती हूँ, इन खुले आसमानों में एक आज़ाद पंछी की तरह। गिरना चाहती हूँ उन बूंदों की तरह जिसका इंतजार रहता है हर एक प्यार करने वाले को। खोना चाहती हूँ कहीं दूर पहाड़ों में जहाँ से कोई ढूँढ ना पाये। डूबना चाहती हूँ खुद में और खुद को जानना चाहती हूँ। खुद से एक सवाल करना चाहती हूँ कि कौन है ये शख्स जो इतने सवाल करता है।"
फिर मैं कहता, "सवाल करना तो मेरा काम है, तुम्हारा नहीं।"
और फिर हम दोनों एक साथ हँस पड़ते।
अलग थीं तुम इस दुनिया से, काफी अलग। तुम्हारी बातें भी तुम्हारी तरह थीं, ख़ुशनुमा और जिन्दादिल!
जब तुम हँसती थीं तो मानो हर तरफ ख़ुशी की लहर दौड़ जाती थी।
तुम एक शांत झील सी थीं, मैं हिचकोले मारता कोई दरिया।
तुम मिश्री सी मीठी थीं, मैं मिर्च सा तीखा।
तुम आसमान थीं तो मैं ज़मीन।
लेकिन एक चीज़ थी जो हमें आपस में जोड़े हुए थी और वो था प्यार का बंधन। इक ऐसा अटूट बंधन जिसकी डोर ऊपरवाले के हाथों में थी।
लेकिन तुम्हें तो बँधना पसन्द नहीं था।
फिर ये प्यार कैसे? ये बंधन कैसा?
तुम कहाँ इस प्यार-व्यार को मानती थीं?
तुम कहती- "ये साथ है कुछ पलों का, जब तक अच्छा लगे तब तक का।" जीवन ठहराव का नाम थोड़े ना है, ये तो गतिशील है, निरन्तर चलने वाले समय की तरह।
काश! समय को हम रोक सकते। उन पलों को फिर से जी सकते। मुठ्ठियों में कैद कर सकते। काश!
और एक दिन बिना बताये तुम चली गयी। कहाँ? ये किसी को पता नहीं।
तुमने वही किया जो तुम करना चाहती थी बिना एक पल भी सोचे कि तुम्हारे बिना मेरा क्या होगा।
खैर तुम हमेशा से मनमौजी थीं। किसी की भी एक नहीं सुनती थीं । तुम खुद में ही सम्पूर्ण थीं और मैं तुम में।
तुम तो चली गयीं और मैं वहीं रह गया। तुम तब भी आजाद थी और अब भी। मैं तब भी तुम्हारे साथ था और अब भी। बस फर्क इतना है कि पहले तुम पास थी अब तुम्हारी यादें पास हैं।
मुस्कुराता कम हूँ अब, थोड़ा गंभीर हो गया हूँ। पहले से ज़्यादा समझदार हो गया हूँ।
तुम्हें अपनी कहानियों में बसा रखा है, जब भी अकेला होता हूँ तुम्हें याद कर लेता हूँ।
लोग कहते हैं कि अब तो भूल जाओ उसे और किसी का साथ अपना लो, कबतक यूँ अकेले रहोगे?
इस पर मैं मुस्कुरा देता हूँ।
उन्हें कौन समझाए कि मैं अकेला नहीं हूँ और ना ही तुम मुझसे दूर।
हम तो हमेशा साथ थे- पहले हाथों में हाथ था, और अब किताबों में बात।
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