थोड़ी सी मसरूफ़ियत,
और थोडा सा मैं,
आज फिर से मिले हैं,
कई अरसे के बाद,
थोड़े-थोड़े से हम,
आज दोनो पूरे हुए हैं,
के जैसे एक शाम
जिसकी तलाश में भटक रह थे हम,
आँधी- तूफ़ानो ने भटकाया,
लू के थपेड़ो ने जलाया,
फिर कही से मसरूफ़ियत तुम आई,
मेरा हाथ थामा,
और ले चली मुझे,
शून्य से क्षितिज की ओर,
मैं ताकता रह गया तुम्हारा चेहरा,
और तुम मुझे, मेरी ओर ले चली,
खुद को इतने करीब से कब देखा था मैने ?
आज जो देखा तो पाया,
वक़्त की लकीरें धीरे-धीरे,
चेहरे पर उतार आई है,
आँखों मैं एक उदासी सी छाई है,
होंठ सुर्ख होकर थरथराने लगे हैं,
अब बस मैं हूँ, अपना सा मैं,
और बस तुम हो ,
मेरी मसरूफ़ियत की साथी,
मेरी " मसरूफ़ियत "
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