Friday, 18 August 2017

रात


रात में बैठे बैठे बस यूँही कभी कुछ ख़याल आते हैं जिन्हे मैं अपने ब्लॉग के लिए सहेज लेता हूँ.. कभी कभी शुन्य की स्तिथि भी आ जाती है.. पर फिर से यूँही कुछ लिखने का मन कर जाता है.. ना जाने क्या है छुपा हुआ मेरे सीने के बाईं ओर .. शायद दिल ही होगा.. पर वो तो कबका मर चुका .. तो अब कौन है.. इसी सवाल का जवाब ढूँढ रहा हूँ मैं.. रात में ..


हर रात अलग होती है जानेगी किसी रात..
शिकवों से भरी रात भी आती है किसी रात..
तक़दीर चमक जाए जिसे देख भी ले तू..
मेरी न क्यों तक़दीर बदल जाए किसी रात?
फूलों में नज़ाकत है,मगर तेरी नहीं दोस्त..
फूलों को भी एहसास ये हो जाए किसी रात..
फ़ुरक़त में पड़ा हूँ तो ये जल्ता है मेरा जिस्म..
शबनम तेरी ज़ुल्फ़ों से बरस जाए किसी रात..
हूँ मुन्तज़र बस एक इशारे का मेरी जान..
शोलों की तपिश लेके चला आऊँ किसी रात..
सहता रहूँ हर ज़ुल्म तेरा,दिल में मगर हो..
आज़ाद सितम से तेरे होजाऊँ किसी रात..
ज़ुल्फ़ें न परेशाँ रहें रुख़ पर तेरे जानम..
बादल से मेरा चाँद न ढक जाए किसी रात..
है जिस्म जो नूरानी,बिठा पहरा न इस पर ..
तारों को भी आराम तो मिल जाए किसी रात..
सर्दी में ठिठुरते हुए बच्चों के बदन पर..
चादर तो ज़रा ऊन की उढ़ा दे किसी रात..
अब आज के बाद होंगे कभी यूँ न जुदा हम..
हाथों में ले दो हाथ,ये कह जा तो किसी रात..
की मिन्नतें जो हैं वो रहें नज़र में वरना..
दिन तेरा भी लेकर न चला जाऊँ किसी रात..
ग़म सारे हों काफ़ूर जो होजाए ये मुमकिन..
सर रख के तेरे ज़ानू पे सोजाऊँ किसी रात..
बीमार जो हूँ तेरा,रहे दिल में न हँगाम ..
बन मेरा मसीहा जो,लिपट जाए किसी रात..

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