Wednesday, 7 February 2018

मौसम का झोंका था



किसी मौसम का झोंका था..

जो इस दीवार पर लटकी हुई तस्वीर तिरछी कर गया है

गए सावन में ये दीवारें यूँ सिली नहीं थी

न जाने इस दफा क्यूँ इनमे सीलन आ गयी है ,

दरारे पड़ गयी हैं

और सीलन इस तरह बहती है जैसे खुश्क रुखसारों पे गीले आंसू चलते हैं


ये बारिश गुनगुनाती थी इसी छत की मुंडेरों पर

ये घर की खिडकियों के कांच पर ऊँगली से लिख जाती थी संदेसे...

बिलखती रहती है बैठी हुई अब बंद रोशनदानो के पीछे


दुपहरें ऐसी लगती हैं बिना मुहरों के खाली खाने रखे हैं

न कोई खेलने वाला है बाज़ी और न कोई चाल चलता है


ना दिन होता है अब न रात होती है

सभी कुछ रुक गया है

वो क्या मौसम का झोंका था जो इस दीवार पर लटकी हुई तस्वीर तिरछी कर गया है

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