Saturday, 3 November 2018

संभावना

आज एक अरसे बाद
जो फ़ुर्सत से बैठा
तो तुम्हारा ख़याल
आके मेरे पास बैठ गया
कुछ बोला नही
यूँही बुत बनकर मुझे तांका
कुछ देर यूँही
एक खामोशी बातें करती रही
धीरे से मैने
तुम्हारी हाथों की लकीरों को टटोला
सारी लकीरे दिखी
बस समय की लकीर ना दिखी
तुम अब भी
मुझे शून्य की तरह देखती रही
और मैं तुम्हे
एक संभावना की तरह देखता रहा
संभावना की
ये तुम्हारा ख़याल नही तुम ही हो
संभावना की
ये खामोशी नही तुम बोल रही हो
संभावना की
ये समय की लकीरें फिर से मिल गयी
संभावना की
ये शून्य अब असंख्य भाव में जी उठा
संभावना की
ये मेरी कल्पना नही हक़ीकत है
संभावना की
ये जो आज तुम लौट आई हो
कभी ना जाओगी फिर कभी
मेरे ख्वाबों की दुनिया छोड़कर

-बिस्मिल

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