Thursday, 31 January 2019

नहीं

काम की बात मैं ने की ही नहीं
ये मेरा तौर-ए-ज़िंदगी ही नहीं

ऐ उमीद ऐ उमीद-ए-नौ-मैदाँ
मुझ से मय्यत तेरी उठी ही नहीं

मैं जो था उस गली का मस्त-ए-ख़िराम
उस गली में मेरी चली ही नहीं

ये सुना है कि मेरे कूच के बा'द
उस की ख़ुश्बू कहीं बसी ही नहीं

थी जो इक फ़ाख़्ता उदास उदास
सुब्ह वो शाख़ से उड़ी ही नहीं

मुझ में अब मेरा जी नहीं लगता
और सितम ये कि मेरा जी ही नहीं

वो जो रहती थी दिल-मोहल्ले में
फिर वो लड़की मुझे मिली ही नहीं

जाइए और ख़ाक उड़ाइए आप
अब वो घर क्या कि वो गली ही नहीं

हाए वो शौक़ जो नहीं था कभी
हाए वो ज़िंदगी जो थी ही नहीं







मस्त-ए-ख़िराम - intoxicated walk
फ़ाख़्ता - a dove

Tuesday, 29 January 2019

इतना तो किया होता

या-रब ग़म-ए-हिज्राँ में इतना तो किया होता 
जो हाथ जिगर पर है वो दस्त-ए-दुआ होता 

इक इश्क़ का ग़म आफ़त और उस पे ये दिल आफ़त 
या ग़म न दिया होता या दिल न दिया होता 

नाकाम-ए-तमन्ना दिल इस सोच में रहता है 
यूँ होता तो क्या होता यूँ होता तो क्या होता 

उम्मीद तो बंध जाती तस्कीन तो हो जाती 
वादा न वफ़ा करते वादा तो किया होता 

ग़ैरों से कहा तुम ने ग़ैरों से सुना तुम ने 
कुछ हम से कहा होता कुछ हम से सुना होता 


ग़म-ए-हिज्राँ - sorrows of separation
दस्त-ए-दुआ - hands raised in prayer
तस्कीन - comfort, pacifying

Saturday, 26 January 2019

मुसाफिर हो तुम भी, मुसाफिर हैं हम भी

इन आंखों से दिन रात बरसात होगी
अगर जिंदगी सर्फ़-ए-जज़्बात होगी


मुसाफिर हो तुम भी, मुसाफिर हैं हम भी
किसी मोड़ पर फिर मुलाक़ात होगी

सदाओं को अल्फाज़ मिलने न पायें
न बादल घिरेंगे न बरसात होगी

चिरागों को आंखों में महफूज़ रखना
बड़ी दूर तक रात ही रात होगी

अज़ल-ता-अब्द तक सफर ही सफर है
कहीं सुबह होगी कहीं रात होगी

A lot of you complain me to put meaning to difficult urdu words. So here it is:

सर्फ़-ए-जज़्बात – भावनाओं में ख़र्च
अज़ल-ता-अब्द – आदि से अंत

Wednesday, 23 January 2019

मैं कुतुब मीनार हूं

महरोली टर्मिनल से वो टूटी फूटी सड़क
जाती है क़ुतुब मीनार की ओर
ऐसे जैसे कोई गांव का बच्चा
धूल-धूसरित कपड़े पहने जा रहा हो दिल्ली देखने
अपने हाथ में पकड़े इतिहास की कोई फटी पुरानी किताब
दूर आकाश में बहुत ऊंचाई से
क़ुतुब मीनार देखती है उस उपेक्षित सड़क को
जैसे नौकरी के लिए कहीं दूर रह रही मां
अपनी आंखों में बना रही हो अपने बच्चे का काल्पनिक चित्र
बिखरे हुए हैं चारों तरफ चुनावी पर्चे
और पर्चों में झूट की तरह  चिपके हैं विकास के वादे
हवा में गूँज रही चुनावी घोषणाओं में धूल लिपटी हुई है
जो सांसों को कर रही है और ज्यादा भारी
और इस धूल, उपेक्षा, टूटन, अव्यवस्था के बीच
लोग जी रहे हैं अपने ही समय को
जैसे देख रहे हों इतिहास को
जिसे बदला नहीं जा सकता
बस देखा जा सकता है बेबसी के साथ
और दूर आकाश में सदियों से टिकी है क़ुतुब मीनार
सोचती हुई कि काश उसके पास भी पंख होते
और ये सब देखने से पहले
वो उड़ सकती इस सबसे कहीं दूर
उस कबूतर के साथ जो अभी अभी उसके गुम्बद  पर बैठा हुआ था

Saturday, 12 January 2019

बनारस

मैं शहर "बनारस" बन जाऊं
तुम गंगा नदी सी बह जाना
मैं घाट घाट ठहर जाऊँ
बन दीपक जल में जल जाना
मैं घाट "केदार" का चरण छू लूँ
तुम गंगारती सी दरस जाना
मैं "विश्वनाथ" में रम जाऊँ
तुम "संकटा" सी संकट हर लेना
मैं "दशाश्वमेध" में बस जाऊँ
तुम "शीतला" बन उबार लेना
ये ज़िंदा शहर "बनारस" है
"मणिकर्णिका" सी मुक्ति दिला देना
ये मन व्याकुल हो भटकता है
चौसठ योगिनी बन धर लेना
में बार बार जो राह भूलूँ
बन कपीश राह दिखा देना
हे त्रिपुरारी जगतपति
अपने में मुझको समाना तुम
जह्नु सुता हे माँ गंगा
अंत में अंक में भर लेना तुम

अस्सी घाट

जो गर रूठूँ तुमसे कभी, मुझे काँधे पर सुला लेना
और चाहो मुझे देखना, तुम अस्सी घाट बुला लेना।

इश्क़ इश्क़ से खफा हैं क्या

इश्क़ इश्क़ से ख़फ़ा हैं क्या ,
रहने दो , पहली दफा हैं क्या।
दर्द बेवफा कभी भी हुआ नहीं,
तो इश्क़ में होती वफ़ा हैं क्या।
खोकर मुझे तुम जानोगे ,
की इश्क़ में होती जफ़ा हैं क्या।
शब् - ओ - रोज़ मुझे मिलते हो ,
मामले सब रफा - दफ़ा हैं क्या।
इश्क़ इश्क़ से खफा हैं क्या।

A lost hope

Fountains of lament burst through my desires for you.. Stood like the height of a pillar that you were, I could see your moving eyes ...