इस हफ़्ते तो यही फ़िल्म चल रही है । थोड़ा एडल्ट टाइप है न ! मुश्किल से आँख मिलाते हुए सिनेमा हाल के मैनेजर ने कहा । दरवाज़े पर बीस बाइस साल के लड़के लड़कियों की तादाद इंतज़ार कर रही थी । सबके हाव भाव से लग रहा था कि बीए पास देखने जा रहे हैं और कहानी पहले से मालूम है । फ़िल्म शुरू होती है और कुछ देर बाद उस सीन पर पहुंचती है जिसे सोच कर देखने वाले आये थे । अलग अलग सीटों से हँसी ठिठोली की आवाज़ छलकने लगती है । सारिका और मुकेश के पहले प्रसंग से हाल में गुदगुदाहट उठी थी या बेहूदगी मालूम नहीं । पर सब उस बोल्ड सीन के लिए ही आए थे जिसके बारे में निर्देशक समझा रहा थे कि बोल्ड सीन को किसी फ्रेम में मत ठूंसिये । हाल में बैठे युवा दर्शकों की ठिठोली और पर्दे पर समाज की उस तस्वीर के बीच फँसा एक दर्शक हर सीन के साथ बढ़ती कहानी से कुचलता चला जा रहा था । दर्शक की दिलचस्पी उन्हीं दृश्यों में थी ।
शहर और समाज अनगिनत अतृप्त आकांक्षाओं का ख़ज़ाना है । लुटा देने और लूट लेने की टकराहट के बीच गँवा देने की हताशा उस ख़जाने को हमेशा राज़ रखने पर मजबूर करती हैं । पर इन्हीं मजबूरियों के बीच फंसी हुई कहानी निकलने का रास्ता ढूँढते ढूँढते किसी होटल की छत से कूद कर आत्महत्या कर लेती है । सारिका नेहा रानी न जाने नाम बदल कर चंद पल अपना ख़रीदने वाली आंटियां इस शहर की मुर्दा ज़रूरतें हैं । जिनकी हत्या शहर ने भी की है और समाज ने भी । दिल्ली रहने के दौरान जिन गाँवों में रहने का तजुरबा हुआ वहाँ ऐसे किस्से दबी ज़ुबान में सुनने को मिल ही जाते थे । रात को मालिक बने स्थानीय शराब के नशे में धुत होते थे और कुछ प्रवासी किरायेदार लड़के अपने मालिक के कमरे में जाग रहे होते थे । रेलवे आंटी कहानी मैंने नहीं पढ़ी है लेकिन अजय बहल की फ़ोटोग्राफ़ी ने जिस तरह इसे पर्दे पर उतारी है वो उन सुनी सुनाई कहानियों को हक़ीक़त में बदल देती है जिन्हें हम सुन कर अनसुना कर देते हैं ।
मुकेश और सारिका के बीच हमारे महानगर की घुटन भी बिस्तर बदलती है । निर्देशक ने जिन दृश्यों को सामान्य बनाने की कोशिश की है वो उतनी भी नहीं है । दर्शक अपनी निजी कुंठाओं या चाहतों को उन दृश्यों के सहारे जीने का प्रयास करेगा ही । कहानी की निर्ममता से किसे लेना देना है । मुकेश की त्रासदी पर किसी को रोते नहीं देखा । स्टेशन पर इंतज़ार करती सोनू से किसी का रिश्ता नहीं जुड़ता । मिस नवल से बात करने की बेचैनी किसे है । उनके एकांत में सारिका जैसी भूख तो नहीं है पर किसी को अपना बनाकर कहने की तड़प तो है ही । अजय बहल का साफ़ सुथरा कैमरा जब रात के एक दृश्य में आख़िरी मेट्रो में मुकेश के ख़ालीपन को पकड़ता है तो कहानी सारिका और उन औरतों की बची हुई भूख की ऊपरी मंज़िल पर अकेली खड़ी नज़र आती है । जिनके शौहर किसी का ख़ज़ाना लूटने के लिए सेब की पेटियाँ मंगवाते रहते हैं । जानी भी जानता है दिल्ली में किसी का ख़ज़ाना लूट कर ही मारीशस जाने का सपना पूरा हो सकता है वर्ना मुर्दों की दाँत से सोना निकाल कर शाम की दारू का ही जुगाड़ हो पाएगा । अतृप्त आकांक्षाओं का ख़ज़ाना लुटने या लूटने के लिए होता है । इसका कोई खाता नहीं होता न ही कोई दराज़ ।
सारिका का किरदार समाज की बनी बनाई परिस्थिति की तरह है और मुकेश का किरदार उसका शिकार । फ़िल्म अच्छी है या बुरी है इससे आगे जाकर यह भी सवाल करना चाहिए कि कहानी सही है या नहीं । सारिका के सीन अतृप्त चाहतों के सीन है । बुढ़िया का पहले ही दस्तक पर मुकेश को भाग जाने का आदेश सारिका की अतृप्त चाहत को लत के रूप में रेखांकित करती है या कोई अस्वीकृति है । इस शहर की आंकाक्षाएं सिर्फ ज़रूरतें नहीं हैं, उसकी सीमा से आगे जाकर लत भी हैं । जिसके लिए कोई शौक़ से जुआ खेलता है तो कोई उस जुए को शतरंज समझ कर । कास्परोव या कार्पोव की चाल पढ़ कर कोई मुकेश लत बन चुकी आकांक्षाओं की चालें चलता है । न कि अपनी न कि कास्परोव की । इस फ़िल्म की औरतों की छोटी छोटी कथाओं पर अलग से लिखा जाना चाहिए । जिस्म की चाहत है या उस ठुकराए जाने की तड़प जिसका बदला या पूर्ति वे अपने पैसे के दम पर करती हैं । ये औरतें अपनी ज़रूरतों की मालिक खुद हैं । वो अपना शिकार ढूँढती हैं न कि बनती हैं । उनकी जिस्मानी चाहतें पति के घर लौटने के वक्त की ग़ुलाम नहीं हैं । वो आज़ादी उन्हें गुमनाम करने वाला शहर ही देता है । वो अपनी साइड भी खुद चुनती हैं । वो किसी की आग़ोश में नहीं हैं, उनकी आग़ोश में कोई है ।
बहुत साफ़ सुथरी फ़ोटोग्राफ़ी है । पहाड़गंज की रातों और नियान लाइट को बख़ूबी दिखाया है । रेलवे कालोनी के उस मकान का एकांत किसी साहित्य के किरदार की तरह लगता है । बी ए पास एक बेज़रूरत की पढ़ाई है । ऐसी कहानियों के किरदार भी बी ए पासकोर्स से ही मिलेंगे । दावा तो नहीं है पर विश्वसनीय ज़रूर लगा । मुकेश की मासूमियत अंत तक नहीं बदलती है । तब भी नहीं जब वो सारिका को मार देता है । वो सारिका को मार कर कम से कम एक बार या फिर हमेशा के लिए निकल जाने की उड़ान भरता है । फ़िल्म को औरतों की निगाह से न देख पाने की आदत के कारण ही कई लोगों को यह बी ए फ़ेल लगी होगी । कहानी दुखदा़यी है पर फ़िल्म अच्छी है । कहीं आप पर्दे पर औरतों को मर्दों पर हावी देख कर तो विचलित नहीं हो गए । हमारा देखने का तरीक़ा भी कितना रूढ़ है । फिक्स कडींशनिंग है ।
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