Friday, 28 July 2017

इश्क में शहर होना

मैं आज स्माल टाउन-सा फील कर रहा हूं…
और मैं मेट्रो-सी
हाँ, जब भी तुम साउथ एक्स से गुज़रती हो, मैं करावल नगर-सा महसूस करता हूँ.
चुप करो. तुम पागल हो. दिल्ली में सब दिल्ली-सा फ़ील करते हैं.
ऐसा नहीं है. दिल्ली में सब दिल्ली नहीं है. जैसे हर किसी की आँखों में इश्क़ नहीं होता…
अच्छा, तो मैं साउथ एक्स कैसे हो गई?
जैसे कि मैं करावल नगर हो गया.
सही कहा तुमने…
ये बारापुला फ्लाइओवर न होता तो साउथ एक्स और
सराय काले खाँ की दूरी कम न होती.
तुम मुझसे प्यार करते हो या शहर से?
शहर से; क्योंकि मेरा शहर तुम हो.

Tuesday, 25 July 2017

मंज़िलें और भी है

हर मुक़ाम पर लगता है की मंज़िलें और भी है
रास्ता अभी बाकी है बहुत की मंज़िलें और भी है

साहिल से टकराकर लौट जाती है हर लहर
साहिल उसके और भी है की मंज़िलें और भी है

ढल जाता है सूरज भी हर शाम
सुबहें अभी और भी है की मंज़िलें और भी है

हमने माना की जिंदगी धड़कनो की मोहताज़ है
साँसे अभी और भी है की मंज़िलें और भी है....

Sunday, 23 July 2017

मसरूफ़ियत


थोड़ी सी मसरूफ़ियत,
और थोडा सा मैं,
आज फिर से मिले हैं,
कई अरसे के बाद,
थोड़े-थोड़े से हम,
आज दोनो पूरे हुए हैं,
के जैसे एक शाम
जिसकी तलाश में भटक रह थे हम,
आँधी- तूफ़ानो ने भटकाया,
लू के थपेड़ो ने जलाया,
फिर कही से मसरूफ़ियत तुम आई,
मेरा हाथ थामा,
और ले चली मुझे,
शून्य से क्षितिज की ओर,
मैं ताकता रह गया तुम्हारा चेहरा,
और तुम मुझे, मेरी ओर ले चली,
खुद को इतने करीब से कब देखा था मैने ?
आज जो देखा तो पाया,
वक़्त की लकीरें धीरे-धीरे,
चेहरे पर उतार आई है,
आँखों मैं एक उदासी सी छाई है,
होंठ सुर्ख होकर थरथराने लगे हैं,
अब बस मैं हूँ, अपना सा मैं,
और बस तुम हो ,
मेरी मसरूफ़ियत की साथी,
मेरी " मसरूफ़ियत "  

Thursday, 20 July 2017

एक कहानी

कुछ लोग
जो मेरे दिल को अच्छे लगते थे
उम्रों के रेले में आए
और जा भी चुके
कुछ धंदों में मसरूफ़ हुए
कुछ चूहा-दौड़ में जीते गए
कुछ हार गए
कुछ क़त्ल हुए
कुछ बढ़ती भीड़ में
अपने-आप से दूर हुए
कुछ टूट गए कुछ डूब गए
मुझ पर ये ख़ौफ़ अब छाया है
मैं किस से मिलने जाऊँगा
मैं किस को पास बुलाऊँगा
आँधी है, गर्म हवा है, आग बरसती है
कुछ देर हुई
इक सूरत, शबनम सी सूरत
इस तपती राह से गुज़री थी
दो बच्चे पेड़ के पत्तों में छुप कर बैठे थे
हँसते शोर मचाते थे
इक दोस्त पुराना
बरसों बाद मिला मुझ को
उस जलते दिन की
सुब्ह कुछ ऐसी रौशन थी
जब बाद-ए-सबा वारफ़्ता-रौ
ख़ुशबुओं, नग़्मों, नन्ही-मुन्नी बातों का
अंदाज़ लिए आँगन में चली
मैं ज़िंदा हूँ
ये सोच के ख़ुश हो जाता हूँ
वो थोड़ी देर तो मेरे पास से गुज़री थी
वो मेरे दिल में उतरी थी
इस बे-महरम से मौसम में
शायद वो कल भी आएगी
शायद वो कल भी मेरी राह से गुज़रेगी

Saturday, 8 July 2017

कागज़ की कश्ती


वो अक्सर मुझे खुदसे दूर रहने की हिदायत देती है, कहती है कि हम दोनों का कोई मेल नहीं है।

"मैं तेज़ बारिश हूँ और तुम कागज़, पास आओगे तो गल जाओगे।" वो मुझसे कहती है।

"कोई कागज़ का मामूली टुकड़ा नहीं, कागज़ की कश्ती हूँ मैं, तुम्हारे बिना मेरा कोई अस्तित्व है क्या? माना गलना ही है मुकद्दर मेरा, पर गलने से पहले कुछ देर साथ तो चल ही सकते हैं ना। अगर कागज़ की कश्ती बारिशों में गलने के डर से कभी पानी में ना उतरती तो उसके होने का कोई मतलब नहीं रहता, वो भी बाकि कागज़ों की तरह किसी रद्दी के ढेर में दफ़्न हो जाती या फिर अंत में किसी कूड़ेदान की भेंट चढ़ जाती। अब तुम ही बताओ, सालों किसी रद्दी के ढेर में सड़ते रहना अच्छा है या कुछ पल के लिए बारिश के पानी में उतरकर अपना सफ़र पूरा करना और मंज़िल आने पर शान से गलना। और गलने के बाद उसी पानी में समा जाना?
मैं रद्दी बनकर अपना जीवन नहीं काटना चाहता, तुम मुझे शान से गलने का मौका दोगी ना?" मैं उससे पूछता हूँ।

इतना सुनने के बाद मुझे उसकी आँखों का तूफ़ान शांत होता दिखता है। वो तेज़ बारिश है, इस तथ्य को मैं नकार नहीं सकता, पर आज उसकी आँखों में मुझे एक ठहराव नज़र आ रहा है। एक मद्धम ठहराव जो झील सा स्थिर नहीं है पर अब उनमें आँधी-तूफानों का वेग भी नहीं है। ठीक वैसा ही मद्धम बहाव है जैसा बारिशों के वक़्त होता है, पानी का वो मद्धम बहाव जिसमें अक्सर कागज़ की कश्तियाँ तैरती हैं।

A lost hope

Fountains of lament burst through my desires for you.. Stood like the height of a pillar that you were, I could see your moving eyes ...