Saturday, 12 August 2017

ये गोरखपुर के बच्चे हैं

ये गोरखपुर के बच्चे हैं


यहाँ से दूर, आकाशों के आगे
कहीं तारों जड़ा जंगल है कोई
हज़ारों पाँव नन्हें दौड़ते हैं
वो हँसते हैं, कुलाँचे मारते हैं
खड़े ऐड़ी पे वो फल तोड़ते हैं
कबड्डी खेलते, ललकारते हैं
परेशाँ अब उन्हें कोई न करता
हरेक मनमौजी है, ग़म से न डरता
यही करने की आदत हो गयी है
उन्हें मरने की आदत हो गयी है
ये गोरखपुर के बच्चे हैं

है जब भी माँ की अपनी याद आती
हवाएँ हैं कोई लोरी सुनातीं
जो बाबा कहते थे हर दिन कहानी
वो सुनते ख़्वाबों में उनकी ज़बानी
कभी गुमसुम अकेले रोते हैं तो
वो कसके थाम लेते दूसरे को
बुरा देखा जो सपना, डर गए तो
पुकारें नाम लेकर दूसरे को
यही करने की आदत हो गयी है
उन्हें मरने की आदत हो गयी है
ये गोरखपुर के बच्चे हैं

मगर कमबख़्त सपने देखते हैं
कोई बच्चा नहीं ऐसे मरेगा
शहर और गाँव ऐसे साफ़ होंगे
ज़हर पानी में अब से ना रहेगा
न होगी मौत की अब कोई साज़िश
न होगी जापानी एंसेफलाइटिस
हैं पत्थर पानी में फेंका ये करते
अधूरे ख़्वाब हैं देखा ये करते
यही करने की आदत हो गयी है
उन्हें मरने की आदत हो गयी है
ये गोरखपुर के बच्चे हैं 

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