Sunday, 6 August 2017

लेट्स टेक ए ब्रेक

कितना अच्छा लगता है ना सुनने में कि नीरस, बेरंग, उदास ज़िन्दगी से एक ब्रेक लिया जाए। कहीं किसी पहाड़ी इलाके में या समंदर किनारे घूम के आया जाये, जिस से इस धीमी सी, रुकी हुई ज़िन्दगी को फिर से रफ़्तार मिल जाये और अगले कुछ सालों के लिए जीने के लिए ईंधन भी। 

अच्छी भूमिका बाँधी है ना? सब कुछ अच्छा लग रहा है, पढ़ते पढ़ते या लिखते हुए वहीं पहुँच गए जहाँ ब्रेक ले कर जाना चाहते हैं। वादियों में घूम रहे हैं, समंदर किनारे टहल रहे हैं, और वापस आ कर फिर से नए जोश के साथ ज़िन्दगी शुरू कर देंगे।

अब फर्ज़ करो कि किसी से बेइंतहा मुहब्बत करते हो। हाँ, उसी बोर रूटीन वाली, उदास ज़िन्दगी से भी ज़्यादा। वो, जो आयी थी तो बहारों के मौसम और खुशियों के ज़माने ले कर आयी थी तुम्हारे लिए। तो लाज़मी है कि उस मौसम और हालात बदल देने वाले शख्स से मोहब्बत भी जरा ज़माने से हट कर ही हुई होगी।

हाँ तो अब वही शख्स तुम्हारा एक हिस्सा बन जाने के बाद बोले, 'लेट्स टेक ए ब्रेक...'

क्या हुआ? समझ रहे हो ना? इल्म भी है कि क्या बोला है उसने? अभी तक अच्छा लग रहा था ना ब्रेक? 

क्या कहा, पैरों तले ज़मीन सरक गयी? सांस अटक गयी? हल्की सी टीस उठ रही है? 

हाँ, वही मतलब था। हाँ वही होता है। डर लगता है ना कि अगर इस ब्रेक में हमारे बिना रहने की आदत पड़ गयी तो? 

कोई हमसे बेहतर मिल गया तो? 

हमसे नफरत हो गयी तो? 

सब ठीक था तो किस बात का ब्रेक? और नहीं भी था तो क्या सुलझाया नहीं जा सकता था? 
खैर दिमाग तो कहता है कि जिस वक़्त उसके ज़हन में ये ख्याल आया होगा उसी वक़्त सब खत्म हो गया होगा और एक अधमरे से रिश्ते को खींचा जा रहा था, एक रस्म निभायी जा रही थी उस रिश्ते के पूरी तरह से मर जाने की। 

पर एक दिल है जो उम्मीद लगाये बैठा है कि 'ब्रेक' खत्म हो जाने के बाद फिर से वापस सब उसी तरह से हो जायेगा जैसे पहले कभी था। 

जैसे हम कहीं से गर्मी की छुट्टियाँ मना कर लौटे और वैसे ही ज़िन्दगी जीने लगे, वही स्कूल, वही नौकरी, वही दोस्त। 

पर दोस्त ये असल ज़िन्दगी है, कोई इम्तियाज़ अली की पिक्चर नहीं, कि दो लोग कहीं दूर वेकेशन पर मिले, दोस्ती हुई, फिर प्यार हुआ और फिर अलग हो गए। अलग हो गए वापस से फिर मिल जाने के लिए। 

क्योंकि हमारी हिंदी फ़िल्में केवल हैप्पी एंडिंग्स ही प्रोमोट करती हैं।

पर ज़िन्दगी जुदा है फिल्मों से। यहाँ एंडिंग तो निश्चित है पर उसका हैप्पी होना गैरजरूरी है। यहाँ एक बार जो गया वो गया, वो वापस नहीं आता। रह जाती है तो बस यादें, टीस, कसक और वो बात 'लेट्स टेक ए ब्रेक'।

खैर, हमारे बड़े बुजुर्ग कह गए हैं कि, 'जाने देना, कैद कर के ना रखना ही प्रेम है' । तो चलो वही ओल्ड फ़ैशन्ड प्रेम करते हैं, बस ।

और हाँ,

हर 'ब्रेक' खूबसूरत नहीं होता ।

जगजीत साहब को सुनिए,
'तेरी उम्मीद पे ठुकरा रहा हूँ दुनिया को,
तुझे भी अपने पे ये ऐतबार है के नहीं ।'

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