Wednesday, 30 August 2017

बचपन

बचपन
कुछ अल्फ़ाज़ मेरे बचपन को बयान तो नहीं कर सकते। फिर भी अगर एक लफ्ज़ में कहु तो, ज़िन्दगी बचपन ही थी। ये बुलंदिया , ये शोहरतें किसी चीज़ की चिंता नहीं थी। क्या पहनना हैं कैसे रहना हैं मेरा ये वाला दिमाग तो मेरी माँ के पास हुआ करता था। और बचपन की लड़ाई चाहे कितनी बड़ी होती हो उसने कभी मेरे दिल को नहीं दुखाया।

 बारिश में जानबुझ कर भीगना ,घर आकर मम्मी की डाट के डर से छत पर छुप जाना ,फिर मम्मी को परेशान होता देख वापस नीचे आना।पापा का आते वक़्त मिठाई लेकर आना। कोई चीज़ मांगने के लिए पापा को पागल बनाना। बर्थडे आने पर पुरे स्कूल में चॉकलेट बाँटना। दीदी की चोटी खींच कर उनको परेशान करना। कही गिर जाने पर भी खुद हीरो बनना और उसे मम्मी पापा से छुपा कर बाथरूम में डेटॉल लगाना।और सबसे अच्छा तो कोई फिल्म देखने के बाद चार दिन तक उसकी कॉपी करना।

हाँ यही करता था मैं बचपन में, पर शायद अब इसे न कर पाऊ  ,किसी को खुल कर कुछ न कह पाऊ  , बस यही ख्वाहिश हैं मेरी, की एक बचपन ....... और ज़ी पाऊ ।

Monday, 28 August 2017

हम जान लेते हैं

बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ए ज़िन्दगी, हम दूर से पहचान लेते हैं।

मेरी नजरें भी ऐसे काफ़िरों की जान ओ ईमाँ हैं
निगाहे मिलते ही जो जान और ईमान लेते हैं।

जिसे कहती दुनिया कामयाबी वाय नादानी
उसे किन क़ीमतों पर कामयाब इंसान लेते हैं।

तबियत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हम ऐसे में तेरी यादों के चादर तान लेते हैं

खुद अपना फ़ैसला भी इश्क में काफ़ी नहीं होता
उसे भी कैसे कर गुजरें जो दिल में ठान लेते हैं

जिसे सूरत बताते हैं, पता देती है सीरत का
इबारत देख कर जिस तरह मानी जान लेते हैं

तुझे घाटा ना होने देंगे कारोबार-ए-उल्फ़त में
हम अपने सर तेरा ऎ दोस्त हर नुक़सान लेते हैं

हमारी हर नजर तुझसे नयी सौगन्ध खाती है
तो तेरी हर नजर से हम नया पैगाम लेते हैं

'फ़िराक' अक्सर बदल कर भेस मिलता है कोई काफ़िर
कभी हम जान लेते हैं कभी पहचान लेते हैं

Monday, 21 August 2017

मै तो कुछ भी नही

आप,
आप न जाने मुझको समझते है क्या 
मै तो कुछ भी नही |

इस कदर प्यार इतनी बड़ी भीड़ को मै रखूँगा कहाँ 
इस कदर प्यार रखने के काबिल  नही 
मेरा दिल, मेरी जान 
मुझको इतनी मुहब्बत ना दो दोस्तों, 
मुझको इतनी मुहब्बत ना दो दोस्तों 
सोच लो दोस्तों 
इस कदर प्यार कैसे संभालूँगा मैं 
मै तो कुछ भी नही  |

प्यार,
प्यार एक शख्श  का भी अगर मिल सके 
 तो बड़ी चीज़ है जिन्दगी  के लिए 
आदमी को मगर ये भी मिलता नही 
ये भी मिलता नही, 
मुझको इतनी मुहब्बत मिली आपसे 
ये मेरा हक नही मेरी तकदीर है 
मैं ज़माने की नज़रो में कुछ भी ना था 
मेरी आँखों में अब तक वो तस्वीर है 
उस मुहब्बत के बदले मै क्या नज़र दूँ 
मै तो कुछ भी नही  |

इज्ज़ते, शोहरते, चाहतें, उल्फतें ,
कोई भी चीज़ दुनिया में रहती नही 
आज मै हूँ जहाँ, कल कोई और था 
ये भी एक दौर है, वो भी एक दौर था 
आज इतनी मुहब्बत ना दो दोस्तों 
कि मेरे कल के खातिर कुछ भी ना रहे 
आज का प्यार थोडा बचा कर  रखो 
थोडा  बचा  कर रखो  मेरे कल के लिए 
कल कल जो गुमनाम है 
कल जो सुनसान है 
कल जो अनजान है 
कल जो वीरान है 
मै तो कुछ भी नही 

Sunday, 20 August 2017

RANDOM से अल्फ़ाज़ भाग २

मुझसे वादा करो मुझे रुलाओगे नहीँ
हालात जो भी हो मुझे भुलाओगे नहीं
छुपा के अपनी आँखों में रखोगे मुझ को
दुनिया में किसी और को दिखाओगे नहीं
मुझे ये यकीन दिलाओ मुझे याद रखोगे
मेरी यादों को अपने दिल से मिटाओगे नहीं

Friday, 18 August 2017

रात


रात में बैठे बैठे बस यूँही कभी कुछ ख़याल आते हैं जिन्हे मैं अपने ब्लॉग के लिए सहेज लेता हूँ.. कभी कभी शुन्य की स्तिथि भी आ जाती है.. पर फिर से यूँही कुछ लिखने का मन कर जाता है.. ना जाने क्या है छुपा हुआ मेरे सीने के बाईं ओर .. शायद दिल ही होगा.. पर वो तो कबका मर चुका .. तो अब कौन है.. इसी सवाल का जवाब ढूँढ रहा हूँ मैं.. रात में ..


हर रात अलग होती है जानेगी किसी रात..
शिकवों से भरी रात भी आती है किसी रात..
तक़दीर चमक जाए जिसे देख भी ले तू..
मेरी न क्यों तक़दीर बदल जाए किसी रात?
फूलों में नज़ाकत है,मगर तेरी नहीं दोस्त..
फूलों को भी एहसास ये हो जाए किसी रात..
फ़ुरक़त में पड़ा हूँ तो ये जल्ता है मेरा जिस्म..
शबनम तेरी ज़ुल्फ़ों से बरस जाए किसी रात..
हूँ मुन्तज़र बस एक इशारे का मेरी जान..
शोलों की तपिश लेके चला आऊँ किसी रात..
सहता रहूँ हर ज़ुल्म तेरा,दिल में मगर हो..
आज़ाद सितम से तेरे होजाऊँ किसी रात..
ज़ुल्फ़ें न परेशाँ रहें रुख़ पर तेरे जानम..
बादल से मेरा चाँद न ढक जाए किसी रात..
है जिस्म जो नूरानी,बिठा पहरा न इस पर ..
तारों को भी आराम तो मिल जाए किसी रात..
सर्दी में ठिठुरते हुए बच्चों के बदन पर..
चादर तो ज़रा ऊन की उढ़ा दे किसी रात..
अब आज के बाद होंगे कभी यूँ न जुदा हम..
हाथों में ले दो हाथ,ये कह जा तो किसी रात..
की मिन्नतें जो हैं वो रहें नज़र में वरना..
दिन तेरा भी लेकर न चला जाऊँ किसी रात..
ग़म सारे हों काफ़ूर जो होजाए ये मुमकिन..
सर रख के तेरे ज़ानू पे सोजाऊँ किसी रात..
बीमार जो हूँ तेरा,रहे दिल में न हँगाम ..
बन मेरा मसीहा जो,लिपट जाए किसी रात..

तन्हा

ज़िंदगी यूँ हुई बसर तन्हा 
क़ाफ़िला साथ और सफ़र तन्हा 

अपने साए से चौंक जाते हैं 
उम्र गुज़री है इस क़दर तन्हा 

रात भर बातें करते हैं तारे 
रात काटे कोई किधर तन्हा 

डूबने वाले पार जा उतरे 
नक़्श-ए-पा अपने छोड़ कर तन्हा 

दिन गुज़रता नहीं है लोगों में 
रात होती नहीं बसर तन्हा 

हम ने दरवाज़े तक तो देखा था 
फिर न जाने गए किधर तन्हा

Random से अल्फ़ाज़ भाग १

साँझ ढले.....😒
गम में हूँ या हूँ शाद मुझे खुद पता नहीं 
खुद को भी हूँ मैं याद मुझे खुद पता नहीं 
मैं तुझको चाहता हूँ मगर मांगता नहीं 
मौला मेरी मुराद मुझे खुद पता नहीं...

* *

मन ख्वाइशों में अटका रहा ...
और ज़िन्दगी हमे जी कर चली गयी

* *
*कहना था ......मुझे बहुत कुछ .......*
*खैर .....आप आज खुश है..जाने दीजिए.....*

* *
*इन 'शायरियों' में खो गया है​*
*कहीं 'सुकून' मेरा दोस्तों*
*जो तुम 'पढ़कर' मुस्कुरा दो​*
*तो 'वसूल' हो जाए*

* *
इश्क़ अगर ख़ाक ना कर दे
तो ख़ाक इश्क़ हुआ
* *
*गाँव को गाँव्* ही रहने दो साहब
*क्यों* शहर बनाने में तुले हुवे हो...
*गांव* में रहोगे तो
*माता-पिता* के नाम से जाने जाओगे ,
*ओर*
*शहर* में रहोगे तो .....
*मकान नंबर* से पहचाने जाओगे 
* *
*मुझ पर इलज़ाम झूठा है....*
*यारों...*
*मोहब्बत की नहीं..हो गयी थी....!!*
* *

गुलज़ार साहब के जन्मदिन पर


शाम का टुकड़ा
धूप का कोना
सिरा नींद का
मन का बिछौना
उखड़ी उखड़ी सी दोपहरें
शाम लगाए आँख पे पहरे
रात महल में ख्वाब न ठहरे
आज का दिन बेज़ार लिखा है
लेकिन तेरी ग़ज़ल के जेवर
पहन के बदले रात के तेवर
तन्हाई भी अब महफ़िल है
लम्हो पर गुलज़ार लिखा है
जन्मदिन मुबारक, गुलज़ार साहब !

- आपका एकलव्य, विकास

Saturday, 12 August 2017

ये गोरखपुर के बच्चे हैं

ये गोरखपुर के बच्चे हैं


यहाँ से दूर, आकाशों के आगे
कहीं तारों जड़ा जंगल है कोई
हज़ारों पाँव नन्हें दौड़ते हैं
वो हँसते हैं, कुलाँचे मारते हैं
खड़े ऐड़ी पे वो फल तोड़ते हैं
कबड्डी खेलते, ललकारते हैं
परेशाँ अब उन्हें कोई न करता
हरेक मनमौजी है, ग़म से न डरता
यही करने की आदत हो गयी है
उन्हें मरने की आदत हो गयी है
ये गोरखपुर के बच्चे हैं

है जब भी माँ की अपनी याद आती
हवाएँ हैं कोई लोरी सुनातीं
जो बाबा कहते थे हर दिन कहानी
वो सुनते ख़्वाबों में उनकी ज़बानी
कभी गुमसुम अकेले रोते हैं तो
वो कसके थाम लेते दूसरे को
बुरा देखा जो सपना, डर गए तो
पुकारें नाम लेकर दूसरे को
यही करने की आदत हो गयी है
उन्हें मरने की आदत हो गयी है
ये गोरखपुर के बच्चे हैं

मगर कमबख़्त सपने देखते हैं
कोई बच्चा नहीं ऐसे मरेगा
शहर और गाँव ऐसे साफ़ होंगे
ज़हर पानी में अब से ना रहेगा
न होगी मौत की अब कोई साज़िश
न होगी जापानी एंसेफलाइटिस
हैं पत्थर पानी में फेंका ये करते
अधूरे ख़्वाब हैं देखा ये करते
यही करने की आदत हो गयी है
उन्हें मरने की आदत हो गयी है
ये गोरखपुर के बच्चे हैं 

Sunday, 6 August 2017

लेट्स टेक ए ब्रेक

कितना अच्छा लगता है ना सुनने में कि नीरस, बेरंग, उदास ज़िन्दगी से एक ब्रेक लिया जाए। कहीं किसी पहाड़ी इलाके में या समंदर किनारे घूम के आया जाये, जिस से इस धीमी सी, रुकी हुई ज़िन्दगी को फिर से रफ़्तार मिल जाये और अगले कुछ सालों के लिए जीने के लिए ईंधन भी। 

अच्छी भूमिका बाँधी है ना? सब कुछ अच्छा लग रहा है, पढ़ते पढ़ते या लिखते हुए वहीं पहुँच गए जहाँ ब्रेक ले कर जाना चाहते हैं। वादियों में घूम रहे हैं, समंदर किनारे टहल रहे हैं, और वापस आ कर फिर से नए जोश के साथ ज़िन्दगी शुरू कर देंगे।

अब फर्ज़ करो कि किसी से बेइंतहा मुहब्बत करते हो। हाँ, उसी बोर रूटीन वाली, उदास ज़िन्दगी से भी ज़्यादा। वो, जो आयी थी तो बहारों के मौसम और खुशियों के ज़माने ले कर आयी थी तुम्हारे लिए। तो लाज़मी है कि उस मौसम और हालात बदल देने वाले शख्स से मोहब्बत भी जरा ज़माने से हट कर ही हुई होगी।

हाँ तो अब वही शख्स तुम्हारा एक हिस्सा बन जाने के बाद बोले, 'लेट्स टेक ए ब्रेक...'

क्या हुआ? समझ रहे हो ना? इल्म भी है कि क्या बोला है उसने? अभी तक अच्छा लग रहा था ना ब्रेक? 

क्या कहा, पैरों तले ज़मीन सरक गयी? सांस अटक गयी? हल्की सी टीस उठ रही है? 

हाँ, वही मतलब था। हाँ वही होता है। डर लगता है ना कि अगर इस ब्रेक में हमारे बिना रहने की आदत पड़ गयी तो? 

कोई हमसे बेहतर मिल गया तो? 

हमसे नफरत हो गयी तो? 

सब ठीक था तो किस बात का ब्रेक? और नहीं भी था तो क्या सुलझाया नहीं जा सकता था? 
खैर दिमाग तो कहता है कि जिस वक़्त उसके ज़हन में ये ख्याल आया होगा उसी वक़्त सब खत्म हो गया होगा और एक अधमरे से रिश्ते को खींचा जा रहा था, एक रस्म निभायी जा रही थी उस रिश्ते के पूरी तरह से मर जाने की। 

पर एक दिल है जो उम्मीद लगाये बैठा है कि 'ब्रेक' खत्म हो जाने के बाद फिर से वापस सब उसी तरह से हो जायेगा जैसे पहले कभी था। 

जैसे हम कहीं से गर्मी की छुट्टियाँ मना कर लौटे और वैसे ही ज़िन्दगी जीने लगे, वही स्कूल, वही नौकरी, वही दोस्त। 

पर दोस्त ये असल ज़िन्दगी है, कोई इम्तियाज़ अली की पिक्चर नहीं, कि दो लोग कहीं दूर वेकेशन पर मिले, दोस्ती हुई, फिर प्यार हुआ और फिर अलग हो गए। अलग हो गए वापस से फिर मिल जाने के लिए। 

क्योंकि हमारी हिंदी फ़िल्में केवल हैप्पी एंडिंग्स ही प्रोमोट करती हैं।

पर ज़िन्दगी जुदा है फिल्मों से। यहाँ एंडिंग तो निश्चित है पर उसका हैप्पी होना गैरजरूरी है। यहाँ एक बार जो गया वो गया, वो वापस नहीं आता। रह जाती है तो बस यादें, टीस, कसक और वो बात 'लेट्स टेक ए ब्रेक'।

खैर, हमारे बड़े बुजुर्ग कह गए हैं कि, 'जाने देना, कैद कर के ना रखना ही प्रेम है' । तो चलो वही ओल्ड फ़ैशन्ड प्रेम करते हैं, बस ।

और हाँ,

हर 'ब्रेक' खूबसूरत नहीं होता ।

जगजीत साहब को सुनिए,
'तेरी उम्मीद पे ठुकरा रहा हूँ दुनिया को,
तुझे भी अपने पे ये ऐतबार है के नहीं ।'

Saturday, 5 August 2017

कभी अकेले में..

कभी अकेले में  मिल कर झंझोड़ दूंगा उसे
जहाँ जहाँ से वो टूटा है जोड़ दूंगा उसे
मुझे छोड़ गया ये कमाल है उस का
इरादा मैंने किया था के छोड़ दूंगा उसे
पसीने बांटता फिरता है हर तरफ सूरज
कभी जो हाथ लगा तो  निचोड़ दूंगा उसे
मज़ा चखा के ही माना हूँ  मैं भी दुनिया को
समझ रही थी  के ऐसे ही छोड़ दूंगा उसे
बचा के रखता है खुद को वो मुझ से शीशाबदन
उसे ये डर है  के तोड़फोड़ दूंगा उसे

A lost hope

Fountains of lament burst through my desires for you.. Stood like the height of a pillar that you were, I could see your moving eyes ...